अध्याय 18 श्लोक 71 - 78 | मोक्षसंन्यासयोग | श्रीमद्भगवद्गीता हिंदी

 

अध्याय 18 श्लोक 71 - 78 | मोक्षसंन्यासयोग | श्रीमद्भगवद्गीता हिंदी

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्‌ ॥
भावार्थ : जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा ॥71॥
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥
भावार्थ : हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?॥72॥
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ॥
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ॥73॥
संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्‌ ॥
भावार्थ :संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्‍भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना ॥74॥
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌ ।योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌॥
भावार्थ :श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना ॥75॥
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्‌ ।केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥
भावार्थ : हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्‍भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ॥76॥
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।विस्मयो मे महान्‌ राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥
भावार्थ : हे राजन्‌! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है उसका नाम 'हरि' है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ॥77॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
भावार्थ : हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है ॥78॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः॥18॥

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