अध्याय 18 श्लोक 11 - 20 | मोक्षसंन्यासयोग | श्रीमद्भगवद्गीता हिंदी
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥
भावार्थ : क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है ॥11॥
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥
भावार्थ : कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता ॥12॥
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥
भावार्थ : हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान ॥13॥
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥
भावार्थ : इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाएँ, उसका नाम अधिष्ठान है) और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण (जिन-जिन इंद्रियादिकों और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं, उनका नाम करण है) एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव (पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों का नाम दैव है) है ॥14॥
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥
भावार्थ : मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं ॥15॥
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥
भावार्थ : परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि (सत्संग और शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म और उपासना के करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिए जो उपर्युक्त साधनों से रहित है, उसकी बुद्धि अशुद्ध है, ऐसा समझना चाहिए।) होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता ॥16॥
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
भावार्थ : जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है। (जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आए तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष 'पाप से नहीं बँधता'।) ॥17॥
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ॥
भावार्थ : ज्ञाता (जानने वाले का नाम 'ज्ञाता' है।), ज्ञान (जिसके द्वारा जाना जाए, उसका नाम 'ज्ञान' है। ) और ज्ञेय (जानने में आने वाली वस्तु का नाम 'ज्ञेय' है।)- ये तीनों प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता (कर्म करने वाले का नाम 'कर्ता' है।), करण (जिन साधनों से कर्म किया जाए, उनका नाम 'करण' है।) तथा क्रिया (करने का नाम 'क्रिया' है।)- ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह है ॥18॥
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि ॥
भावार्थ : गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तु मुझसे भलीभाँति सुन ॥19॥
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
भावार्थ : जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान ॥20॥
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